संविधान की कसौटी पर जाति! बिहार का डाटा दे रहा झटका, क्या बचेगा सामाजिक सद्भाव?

बिहार में हाल ही में हुई जातिगत जनगणना ने राष्ट्रीय जनगणना में इसे शामिल करने पर पुनर्विचार करने का आह्वान किया है। यह बहस न केवल सांख्यिकीय आंकड़ों का सवाल है, बल्कि राष्ट्रवाद और लोकतंत्र के सार के बारे में भी नागरिकों को चिंतन करने का आग्रह करती है।

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दक्षिण एशियाई अनुभव के विभिन्न पहलुओं में जाति व्याप्त है, लेकिन भारत ने 1931 के बाद से दशकवार जनगणना में इसे दर्ज करने से परहेज किया है। प्रतिस्पर्धी जातिवाद को हतोत्साहित करने के लिए “जाति” को हटाने के बावजूद, “धर्म” की श्रेणी बनी हुई है। यह अनिच्छा जातिगत अभिजात वर्ग द्वारा उनके विशेषाधिकार की जांच के डर से उपजी है।

 

बिहार द्वारा हाल ही में जाति-आधारित डेटा जारी करने से सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% कोटा सीमा को चुनौती दी जा सकती है, जिससे कोटा विस्तार और आनुपातिक प्रतिनिधित्व पर चर्चा हो रही है।

 

इस बहस के केंद्र में यह सवाल है कि क्या जातिगत जनगणना से वास्तव में सामाजिक असमानता को कम करने में मदद मिलेगी, या यह जातिगत विभाजन को और मजबूत करेगी? समर्थकों का तर्क है कि जातिगत आंकड़े वंचित समुदायों के लिए नीतियों और संसाधनों के आवंटन को बेहतर ढंग से लक्षित करने में मदद करेंगे। वहीं, विरोधियों का कहना है कि जातिगत डेटा का दुरुपयोग हो सकता है और सामाजिक तनाव को बढ़ा सकता है।

 

अंततः, यह बहस इस बात पर निर्भर करती है कि हम किस तरह का भारत बनाना चाहते हैं। क्या हम एक ऐसा समाज चाहते हैं जो जाति के आधार पर विभाजित हो, या एक ऐसा समाज जो सभी के लिए समान अवसर प्रदान करे? यह एक कठिन सवाल है, लेकिन यह एक ऐसा सवाल है जिसका सामना हमें करना ही होगा।